31 मार्च 2018

दलित उत्पीड़न कानून, एक घटिया राजनीति

पॉलिटिक्स बहुत घटिया चीज है, दलित उत्पीड़न कानून के बहाने...

(अरुण साथी, पत्रकार बरबीघा, बिहार)

सर्वप्रथम, दबंगों द्वारा दलितों का उत्पीड़न एक सच है पर उससे भी बड़ा सच दलित उत्पीड़न का ज्यादातर मामले फर्जी दर्ज कराया जाना है। कोई भी कानून सामाजिक सुधार के लिए बनाया जाता है, सामाजिक दुराव के लिए नहीं। दलित उत्पीड़न का कानून आज मानवाधिकार का उलंघन जैसा है, तो क्या गैर दलितों का मानवाधिकार नहीं होता...!

आज डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर नाम पे बबाल है। रामजी क्यों जोड़ा गया जबकि इसके कई प्रमाण है। 1991 में कांग्रेसी सरकार के डाक टिकट पे ऐसा ही लिखा है। और तो और जो अम्बेडकरवादी ब्राह्मणों से घोर नफरत करते है वे नहीं जानते कि एक ब्राह्मण शिक्षक कृष्ण महादेव अम्बेडकर ने भीम राव को इस लायक बनाया और अम्बेडकर ने अपने गुरु का उपनाम लगाया फिर पिता का उपनाम लगाने में शर्म कैसा....!

खैर सब पोलटिक्स है, अब, उच्चतम न्यायालय के द्वारा दलित उत्पीड़न के कानून में थोड़ा सा संशोधन किया गया है। माननीय न्यायाधीशों ने इस बिंदु पर लंबी जिरह के बाद यह फैसला दिया होगा परंतु कांग्रेस पार्टी, लोजपा, बसपा सहित अन्य दल इसको लेकर घटिया राजनीति कर रही है। हालांकि देश का बंटवारा, लिंगायत, शाह बानो, तीन तलाक जैसे मुद्दे भी इसी के गवाह है काँग्रेस देश हित की राजनीति नही करती। 

नेताओं को इस बात से मतलब नहीं है की इसकी वजह से कितने लोगों को कितनी तकलीफें उठानी पड़ी है। जो भी लोग सामाजिक सरोकार में रहते हैं वे निश्चित रूप से जानते हैं कि दलित उत्पीड़न का ज्यादातर मामला अब फर्जी ही होता है।

हालांकि उच्चतम न्यायालय के आदेश में केवल मामले को जांच करने के बाद कार्यवाही किए जाने की बात कही है परंतु इस मुद्दे को इतना तूल दिया जा रहा है और बताया जा रहा है कि यह दलित विरोधी कानून बीजेपी की वजह से आने वाला है जबकि यह उच्चतम न्यायालय के माननीय जजों के फैसला है। तीन तलाक जैसे नारी सशक्तिकरण के मुद्दे पे भी पार्टी का यही रवैया रहा है।

अपने रिपोर्टिंग के अनुभव से मैं कह सकता हूं कि ज्यादातर दलित उत्पीड़न के मामले फर्जी होते हैं। एक मामले का अनुभव यह रहा कि एक दलित युवक ने मेरे सामने ही थाना में आकर गाली गलौज करने, मारपीट करने और दलित शब्द का प्रयोग कर गाली देने का थानाध्यक्ष को आवेदन दिया। घटनास्थल भी थाना का गेट बताया गया। वह युवक जानता था कि थाना अध्यक्ष दलित हैं इसलिए वह और भी अपने को दलित कहकर उन को उत्तेजित कर रहा था। खैर, थाना अध्यक्ष अपनी सूझबूझ से काम लिया और उसको साथ लेकर घटनास्थल पर लेकर गए स्थानीय दुकानदारों से जब पूछताछ की गई तो किसी ने भी यहां मारपीट होने की बात नहीं कही। बाद में पता चला कि यह आपसी विवाद का मामला था। थानाध्यक्ष ने उसको बहुत समझाया परंतु वह प्राथमिकी दर्ज करने पर अड़ गया। खैर, थानाध्यक्ष ने अनुसंधान में दलित उत्पीड़न की बात नहीं होने की बात कही। ऐसे कई मामले है। जिसमे ऐसा होने पे पुलिस को उगाही का सुनहरा मौका मिल जाता है। दहेज उत्पीड़न का मामला भी ऐसा ही है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना लोक कल्याणकारी का है। वर्तमान समय मे यह वोट कल्याणकारी का हो गया है। ऐसा नहीं कि बीजेपी सहित अन्य दल ऐसा नहीं करते। इसके पीछे सीधा कुतर्क दिया जाता कि बीजेपी भी कश्मीर में अलगाववादी समर्थक से मिल सरकार बना लिया। नागालैंड में भी ऐसा किया पर यह अपने जगह है। एक गलत है तो दूसरा सही नहीं हो सकता। पर राजनीति का तो यही फार्मूला है। खुद को सही साबित करने से बेहतर दूसरे को गलत बात दो।

जैसे दहेज उत्पीड़न के कानून में सुधार पर समूचे देश ने उसे स्वीकार कर लिया उसी तरह से आज दलित उत्पीड़न के कानून को सुधारकर उच्चतम न्यायालय ने एक मानवाधिकार के हित में बड़ा फैसला दिया था और इसे स्वीकार किया जाना चाहिए परंतु दलित राजनीति कार्ड खेलने वाले नेताओं को समाज सुधार से जरूरत नहीं है, देशहित से जरूरत नहीं है, उनको केवल वोट ही साधना दिखता है ऐसे में गैर दलितों को मुखर होकर दलित उत्पीड़न कानून के इस सुधारवादी फैसले को लागू किए जाने पर आगे आना चाहिए। क्योंकि दलित वोट बैंक के लिए बीजेपी सरकार पर बनी दबाव के वजह से इस कानून को फिर से उसी रूप में लागू किया जा सकता है और गैर दलितों का मानव अधिकार छीन लिया जा सकता है, आइए मुखर होइए...

30 मार्च 2018

हिंदुत्व का इस्लामीकरण या भय से देह फूलना..बिहार में दंगे पे एक चाय चर्चा

हिंदुत्व का इस्लामीकरण या भय से देह फूलना....! बिहार में दंगे के बीच चाय चौपाल पे एक चर्चा ...

बिहार में रामनवमी जुलूस में उपद्रव के बीच ग्रामीण चाय चौपाल पे चर्चा का बाजार गर्म है। सबका अपना अपना मत है। बजरंगी उत्पातों की वजह से इंटरनेट सेवा चैबीस घंटे बंद रही। चर्चा में हिन्दू लोग ही शामिल है। सारे बहसों के बीच एक मित्र कहते है कि जो हो रहा है वह ठीक नहीं है। पर क्या किया जाए। पूरी दुनिया में मुसलमानों ने जो मारकाट मचाई है उससे सबको डर लगता है। यहां के उपद्रव पे हमलोग आधे इसका समर्थन और आधे विरोध कर रहे है पर मुसलमान ऐसा नहीं करते। हिंदुओं में कोई मार मार कोई धार धार (बचाव) करते है। मुस्लिम समाज में प्रगतिशील व्यक्ति भी धार्मिक मुद्दे पे अपने धर्म के कुरीतियों के साथ खड़ा हो जाता है। वह चाहे इस्लामिक आतंकवाद हो, तीन तलाक का मामला हो या वंदे मातरम का।

इसी बीच प्रखर नमो भक्त भैयाजी कहते है कि

"यह तुष्टीकरण के विरोध में पनपे कुंठा का परिणाम है। यह भय से देह फूलना है। मुसलमानों को दुनियाभर में दिक्कत है। हिन्दू-जैन, हिन्दू-ईसाई, हिदूं-बौद्धिस्ट, ईसाई-जैनी आदि इत्यादि समुदाय के लोग एक साथ रह लेते है पर मुस्लिम-हिन्दू, मुस्लिम-बौद्धिस्ट, मुस्लिम-ईसाई, मुस्लिम-जैनी, मुस्लिम-यहूदी आदि इत्यादि सभी जगह मारकाट मचा हुआ है। इसका संदेश साफ है। मुसलमानों को दुनियाभर में केवल अपना धर्म चाहिए। बाकी काफिर है।"

मुझपे तंज करते है-
"बड़े सेकुलर हो तो बंगाल जाओ। रानीगंज। एक डीएसपी का हाथ बम से उड़ा दिया और मीडिया खामोश है। बिहार पे मीडिया में बबाल क्या प्रायोजित नहीं लगता। भूल गए मालदा की घटनाएं। और सुनो। जहां भी मुस्लिम आबादी अधिक होगी उस इलाके से काफिरों को भगा दिया जाएगा। मार दिया जाएगा।"

इसी बहस के बीच मैंने कहा कि जो भी है।

"भारत में यह आग राजनीतिज्ञों की लगाई हुई है। देश का मानस सहिष्णु रहा है पर उसे धार्मिक अफीम से असहिष्णु बनाया जा रहा है। इसमें युवा और किशोर वर्ग आसानी से फंस जाते है। देश में चुनाव से पहले धार्मिक उन्माद फैला दिया जाता है। इसी से तो रोटी, रोजगार, मंहगाई, विकास जैसे मूलभूत मुद्दों से ध्यान हटेगा। यह बात भी सही है कि भारत मे धर्मनिरपेक्षता के मायने बदल दिए गए है। आज धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले को मुस्लिम समर्थक माना जाता है। यह सच भी है। जबकि सभी धर्मों से समभाव ही धर्मनिरपेक्षता है। यह सब केवल नेताओं और इतने सालों तक देश की सत्ता पे काबिज कांग्रेसी सरकारों की वजह से ही नहीं हुआ है बल्कि वामदल, समाजवादी, सोसलिस्ट सभी ने इसमें बराबर की भूमिका निभाई है। और तो और प्रगतिशील, उदारवादी, समाजसेवी, साहित्यकार और मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी यही करता रहा है। अखलाक से लेकर डॉ नारंग तक इसके उदाहरण भरे पड़े है। हिंदुओ के हमले में मारे जाने पे हाय तौबा और मुसलमानों के हमले में मारे जाने पे औपचारिकता। यह अंतर इस खाई को चौड़ा करता जा रहा है। अब इन बातों को सोशल मीडिया की वजह से सब समझते है।

आग लगाई जा रही है। सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर किशोरावस्था के बच्चों और युवाओं को भटकाया जा रहा है। उनके जेहन में धार्मिक उन्माद भरा जा रहा है। दोनों धर्मों के कट्टरपंथी संगठन ऐसा करने में लगे हुए है। रामनवमी जुलूस में बजने वाला संगीतबद्ध हुंकार प्रायोजित है। उत्तेजित करने वाला है। और धर्म रूपी बारूद की ढेर पे बैठे देश को जलाने के लिए नवउन्मादी नेताओं को यही रास्ता शॉर्टकट लगता है। इसके कई आइडियल देश में देख वे बौरा गए है। तेजी से वे इसे रास्ते पे चलने लगे है। ठीक उसी तरह जैसे एक दौर में राजनीति के अपराधीकरण के दौर में युवाओं का बड़ा वर्ग अपराध के रास्ते राजनीति के सत्ता पे काबिज होने लगे थे। आज वही दौर राजनीति के धर्मिककरण से चल पड़ा है। लंपड, लफ्फाडो को यही शार्टकट आसान लग रहा है सो वे धर्म का चोला पहल रहे है।

इस सबमे रही सही कसर मुसलमानों में उदारवादी तबके की खामोशी पूरा कर देती है। वह चाहे तीन तलाक का मुद्दा हो या इस्लामिक आतंकवाद का। प्रगतिशील और उदारवादी मुसलमान चुप हो जाते है। विरोध नहीं करते।

हालांकि मलाला से लेकर तस्लीमा नसरीन, तारेक फतेह तक इसके अपवाद भी है। परंतु इन अपवादों की आवाज को दबा दिया जाता है। मुस्लिम समाज उसका बहिष्कार करता है। प्रगतिशील आवाज को मार दिया जाता है।

इसी बीच एक मित्र ने पूछ लिया अच्छा बताओ पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे से मुसलमानों को क्यों नाराज होना चाहिए? वंदे मातरम क्यों नहीं कहना चाहिए? पाकिस्तान से भारत के हार पे जश्न क्यों मनना चाहिए?
मेरे पास इसका जबाब नहीं था पर मैं सोंच रहा था कि प्रगतिशील मुसलमान की खामोशी ने ही हम जैसों के पास कोई स्पेस नहीं छोड़ा की मुखर होकर कट्टरपंथियों का प्रतिकार कर सकें..फिर भी हिंसा में मरना तो आम आदमी को है। न नेताओं के घर जलेंगे, न उनकी दुकान जलेंगी... इस सबका नुकसान गरीब को ही उठाना पड़ेगा...काश की हम गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, मँहगाई से लड़ते हो हमारी नई पीढ़ी को नया रास्ता मिलता...पर वर्तमान रास्ता तो हमे पांच हजार साल पुराने आदिम युग मे ही लेकर जा रहा है...

इस सब के बीच बरबीघा के सर्बा गांव में पांच सौ घर के हिंदुओं की बस्ती में एक घर मुसलमान नस्सू मियां भी अपने घर मे शांति से रहते है। एक मित्र ने तर्क दिया। तुम एक गांव मुस्लिम का खोज दो जिसमे एक घर हिन्दू का हो जो शांति से रहे। इस सवाल का जबाब मेरे पास नहीं था। खोजते है। शायद कहीं जरूर होगा। आपके पास हो तो बताइए..

पर एक जबाब है कि हिंसा कभी धर्म का रहता नहीं हो सकता। धर्म प्रेम का रास्ता है। जो भी हिंसा के रास्ते है वे अधार्मिक है। अधार्मिक....!! आज हिंसा की वजह से दुनिया मे इस्लाम धर्म कहाँ है सोंच के देखिये..क्या हिन्दू धर्म को भी वहीं ले जाना चाहे रहे...

मेरे राम मेरे दिल मे बसते है। राम को घट घट का बासी कहा गया है। हम तो अपने राम को अपने दिल मे ही रखते है बाकी बाल्मिकी भी राम नाम लेके संत हो गेला हल। मन बहलाबे ले ई सोंचे में मनाही थोड़े न है जी... जय श्री राम...

29 मार्च 2018

राम के नाम पे डराने लगे है...

राम का नाम लेकर
डराने लगे है,
अब रावण ही छद्म
भक्त रूप में
आने लगे है...

है कौन जो अब
प्रतिकार करे
धर्म भेषधारी
अधर्म का बहिष्कार करे
वोट बैंक की चिंता
पक्ष-विपक्ष को
सताने लगे है

कोई इस तरफ तो
कोई उस तरह से
मशाल लिए बैठा है
मजहबी बारूद के ढेर में
आहिस्ते से सियासतदां
चिंगारी लगाने लगे है

जला कर देश ही
जला सकते हो
रोटी और रोजगार के
चीत्कार को
इसीलिए तो
नेताजी
युवाओं के हाथों में
धर्म ध्वज थमाने लगे है..
#साथी के #बकलोल_वचन


23 मार्च 2018

लेनिन की मूर्ति गिराने वालों और धार्मिक कट्टरपंथियों कम से कम तुम तो भगत सिंह को नमन मत करो.. पढ़ तो लो उन्होंने क्या कहा..

लेनिन की मूर्ति गिराने वाले और धार्मिक कट्टरपंथियों, कम से कम तुम तो भगत सिंह को नमन मत करो पढ़िए भगत सिंह के विचार...

अरुण साथी

आज भारत में धार्मिक उन्माद के चरमोत्कर्ष पर है। आज लेनिन की मूर्तियां गिराई जा रहे हैं। फिर भी धार्मिक कट्टरपंथी और विचारधारा से अलग सहमति रखने वाले लोग भगत सिंह को शहादत दिवस पर नमन कर रहे हैं। उनके और उनके साथियों की तस्वीर के साथ बड़े-बड़े बोल बोल रहे हैं। परंतु वे नहीं जानते कि भगत सिंह ने क्या कहा है। शायद भगत सिंह के इस विचार को पढ़कर वे शर्मसार हो जाएंगे। कम से कम भगत सिंह को नमन करने का अधिकार तो उनको नहीं ही है...

जून 1928 को भगत ने एक आलेख में लिखा है..

‘‘भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट््टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है।

यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।

ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं।

कोई बिरला ही हिंदू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डंडे-लाठियां, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़ कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फांसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिए जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंगरेजी सरकार का डंडा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।’’

समाचार पत्रों की भूमिका पर भी खबरों में भेदभाव के आरोप लगते हैं। सांप्रदायिक दंगों के दौरान तो तटस्थ पत्रकारों और अखबारों का मानो अकाल पड़ जाता है। भगतसिंह और उनके साथियों समेत गांधीजी तक को उसका दंश झेलना पड़ा। बापू की शहादत की तो वजह ही यही थी; उनका जीवन सांप्रदायिकता की भेंट चढ़ गया।

लेकिन धर्मांधता को लेकर क्रांतिकारी आंदोलन के नेताओं के विचार स्पष्ट थे और वे समाचार पत्रों पर भी तंज कसने से परहेज नहीं करते थे। हालांकि उस समय पाबंदी और काले कानूनों के कारण ज्यादा पत्रों का प्रकाशन नहीं होता था, लेकिन धार्मिक घृणा उस समय भी पत्रकारिता का अंग थी, जिसका उल्लेख अपने लेखों में भगतसिंह और उनके साथियों ने साफगोई से किया है।

‘‘दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं।

पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक, जिनका दिल और दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो, बहुत कम हैं।

अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या?’’

उपरोक्त वर्णित धार्मिक कट्टरपंथियों के प्रति भगत सिंह के विचार के बाद आइए हम देखते हैं लेनिन के प्रति भगत सिंह ने क्या कहा है..

23 मार्च को भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिले थे। उन्होंने बाद में लिखा कि भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे.

‘इंक़लाब ज़िदाबाद!’
भगत सिंह ने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए या नहीं ? जब मैंने उन्हे किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज़्यादा समय न बचा हो।
मैंने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, “सिर्फ़ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इन्क़लाब ज़िदाबाद !”
इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को उनका धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने उनके केस में गहरी रुचि ली।

मेहता के जाने के थोड़ी देर बाद जेल अफ़सरों ने तीनों क्रांतिकारियों को बता दिया कि उनको वक़्त से 12 घंटे पहले ही फांसी दी जा रही है। अगले दिन सुबह छह बजे की बजाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा.

जब यह ख़बर भगत सिंह को दी गई तो वे मेहता द्वारा दी गई किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाए थे. उनके मुंह से निकला, ” क्या मुझे लेनिन की किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे ? ज़रा एक क्रांतिकारी की दूसरे क्रांतिकारी से मुलाक़ात तो ख़त्म होने दो।”

21 मार्च 2018

भारत के युवा रास्ता भटक गए है या हमने रास्ता ही नहीं बनाया... पढ़िए आचार्य ओशो क्या कहते है...


एक मित्र ने पूछा है कि कहा जाता है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। उसे सच्ची राह पर कैसे लाया जा सकता है?

-पहली तो यह बात ही झूठ है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। भारत का जवान राह नहीं खो बैठा है, भारत की बूढ़ी पीढ़ी की राह अचानक आकर व्यर्थ हो गई है और आगे कोई रास्ता नहीं है। आज तक जिसे हमने रास्ता समझा था वह अचानक समाप्त हो गया है और आगे कोई रास्ता नहीं है, और रास्ता न हो तो खोने के सिवाय मार्ग क्या रह जाएगा?

भारत का जवान नहीं खो गया है, भारत ने अब तक जो रास्ता निर्मित किया था, इस सदी में आकर हमें पता चला कि वह रास्ता है ही नहीं इसलिए हम बेराह खड़े हो गए हैं। रास्ता तो तब खोया जाता है, जब रास्ता हो और रास्ते से भटक जाएं। जब रास्ता ही न बचा हो तो किसी को भटकाने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। 

जवान को रास्ते पर नहीं लाना है, रास्ता बनाना है। रास्ता नहीं है आज और रास्ता बन जाए तो जवान सदा रास्ते पर आने को तैयार है, हमेशा तैयार है। क्योंकि जीना है उसे, रास्ते से भटककर जी थोड़े सकेगा! बूढ़े रास्ते से भटके, भटक सकते हैं। क्योंकि उन्हें जीना नहीं है और सब रास्ते- भटके हुए रास्ते भी कब्र तक पहुंचा देते हैं।

लेकिन जिसे जीना है, वह भटक नहीं सकता। भटकना मजबूरी है उसकी। जीना है तो रास्ते पर होना पड़ेगा, क्योंकि भटके हुए रास्ते जिंदगी की मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं। जिंदगी की मंजिल तक पहुंचने के लिए ठीक रास्ता चाहिए, लेकिन रास्ता नहीं है।

मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि युवक नहीं भटक गया है, हमने जो रास्ता बनाया था वह रास्ता ही विलीन हो गया; वह रास्ता ही नहीं है अब। आगे कोई रास्ता ही नहीं है। और अगर युवक वर्ग को ही गाली दिए चले जाएंगे कि तुम भटक गए हो, तो वह हमसे सिर्फ क्रुद्ध हो सकता है, क्योंकि उसे कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा है और आप कहते हैं भटक गए हो।

हमने कुछ रास्ता बनाया था, जो बीसवीं सदी में आकर व्यर्थ हो गया है। हमने रास्ता बनाया था। वह रास्ता ऐसा था कि उसका व्यर्थ हो जाना अनिवार्य था।

पहली बात तो यह है कि हमने पृथ्वी पर चलने लायक रास्ता कभी नहीं बनाया। हमने रास्ता बनाया था, जैसे बेबीलोन में टॉवर बनाया था कुछ लोगों ने स्वर्ग जाने के लिए। वह जमीन पर नहीं था, वह ऊपर आकाश की तरफ जा रहा था। स्वर्ग पहुंचने के लिए कुछ लोगों ने एक टॉवर बनाया था।

हिन्दुस्तान ने 5 हजार सालों से जमीन पर चलने लायक रास्ता नहीं बनाया, स्वर्ग पर पहुंचने के रास्ते खोजे हैं। स्वर्ग पर पहुंचने के रास्ते खोजने में पृथ्वी पर रास्ते बनाना भूल गए हैं। हमारी आंखें आकाश की तरफ अटक गई हैं। और हमारे पैर तो मजबूरी से पृथ्वी पर ही चलेंगे। 20वीं सदी में आकर हमको अचानक पता चला है कि हमारी आंखों और पैरों में विरोध हो गया है। आंखें आकाश से वापस जमीन की तरफ लौटी हैं तो हम देखते हैं, नीचे कोई रास्ता नहीं है। नीचे हमने कभी देखा नहीं।

इस देश में हमने एक पारलौकिक संस्कृति बनाने की कोशिश की थी। बड़ा अद्भुत सपना था, लेकिन सफल नहीं हुआ, न सफल हो सकता था। इस पृथ्वी पर रहने वाले को इस पृथ्वी की संस्कृति बनानी पड़ेगी, पार्थिव। इस पृथ्वी की संस्कृति हमने निर्मित नहीं की।

मैंने सुना है कि यूनान में एक बहुत बड़ा ज्योतिषी एक रात एक गड्ढे में गिर गया। चिल्लाता है, बड़ी मुश्किल से पास की किसी किसान औरत ने उसे निकाला। जब उसे निकाला, तब उस ज्योतिष ने कहा है कि मां, तुझे बहुत धन्यवाद। मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं, तारों के संबंध में मुझसे ज्यादा कोई नहीं जानता। अगर तुझे तारों के संबंध में कुछ जानना हो तो मैं बिना फीस के तुझे बता दूंगा, तू चली आना। मेरी फीस भी बहुत ज्यादा है।

उस बूढ़ी औरत ने कहा, बेटे तुम निश्चिंत रहो, मैं कभी न आऊंगी, क्योंकि जिसे अभी जमीन के गड्ढे नहीं दिखाई पड़ते हैं उसके आकाश के तारों के ज्ञान का भरोसा मैं कैसे करूं?

भारत कोई 3 हजार साल से गड्ढे में पड़ा है आकाश की तरफ आंखें उठाने के कारण। नहीं, मैं यह नहीं कहता हूं कि किन्हीं क्षणों में आकाश की तरफ न देखा जाए, लेकिन आकाश की तरफ देखने में समर्थ वही है, जो जमीन पर रास्ता बना ले और विश्राम कर सके। वह आकाश की तरफ देख सकता है, लेकिन जमीन को भूलकर अगर आकाश की तरफ देखेंगे तो गहरी खाई में गिरने के सिवाय कोई मार्ग नहीं है।

लेकिन पूछा जा सकता है कि भारत के जवान ने इसके पहले यह भटकन क्यों न ली? 20वीं सदी में आकर क्या बात हो गई?

रास्ता- मैं कह रहा हूं, 3 हजार साल से हमारी पूरी संस्कृति ने जमीन पर रास्ता ही नहीं बनाया।

अगर हम पुराने शास्त्र पढ़ें तो उनमें हमें मिल जाएगी किताबें, जिनका नाम है, 'मोक्ष मार्ग', मोक्ष की तरफ जाने वाला रास्ता। लेकिन पृथ्वी पर चलने वाले रास्ते के संबंध में एक भी किताब भारतीय संस्कृति के संबंध में नहीं है। स्वर्ग जाने का रास्ता भी है, नर्क जाने का रास्ता भी है, लेकिन पृथ्वी पर चलने के रास्ते के संबंध में कोई बात नहीं है।

साभार : भारत के जलते प्रश्न (स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का)
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन