09 मई 2012

बिहार मे बिकाउ मीडिया का दूसरा पहलू।


अरूण साथी
बिहार में बिपक्ष सत्ता पक्ष को कम और मीडिया को ज्यादा घेरने-गरियाने में लगी हुई है। वह चाहे लालू प्रसाद यादव हो, रामविलास पासवान या आधा भीतर आधा बाहर बाले अवसरबादी संगठन बिहार नवनिर्माण मंच के नेता उपेन्द्र कुशवाहा, अरूण सिंह। मीडिया को गलियाने के इस आग में घी का काम किया प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस माकाण्डेय काटजू का बयान और फिर सोशल मीडिया साईट्स तो है ही कीचड़ उछाने के लिए। कई बार मैंने भी इस संबंध में लिखा है पर आज मैं सीक्के के दूसरे पहलू पर चर्चा करना चाहूंगा जिसे मैंने नजदीक से जाना, देखा है।
सबसे पहले में विपक्ष की नेताआंे की बात करू तो सत्ताच्युत होने के बाद बिहार से बिपक्ष ऐसे गायब हो गया जैसे कि गदहे के सर से सिंघ। राग दरबारी के शौकीन नेता साइरस पंछी की तरह प्रतिकूल मौसम देख दिल्ली प्रवास पर पलायन कर गए और यदा कदा बरसाती मेढ़क की तरह चुनावी मौसम में टर्र टर्र करने लगे जिसे जनता ने पसंद नहीं किया। बिडम्बना यह कि रामविलास पासवान के चार दिवसीय दौरे पर आने की खबर अखबरों मंे छपती है। परिणामतः सत्ता निरंकुश होती चली गई। राजधानी से लेकर प्रखण्ड स्तर तक विपक्ष के कार्यकर्त्ता अनाथ आश्रम की तलाश में सत्ता का दामन थाम लिया। चोर से लेकर हत्यारे और बलात्कारी तक को थाने से एक फोन पर छुड़ा लेने वाले चलन को रोकने के लिए नीतीश कुमार ने पोल्टीशीयन-पुलिस कनेक्शन को खत्म कर दिया। इसका दुष्परिणाम यह की निरंकुश सत्ता को टोकने वाला कोई नहीं बचा। राष्टकवि रामधारी सिंह दिनकर की उक्ति, हो कहीं भी अन्याय उसे रोक दो, पाप करे यदि शशि-सुर्य उसे टोक दो कि परिपाटी समाप्त हो गई। सत्ता तानाशाह हो गई, बिहार पुलिस ब्रिटिश पुलिस की तरह काम करने लगी। जनता का दर्द सुनने वाला कोई नहीं बचाा और परिणामतः आम आदमी सड़क पर उतरा और पुलिस की बहिशयाना चेहरा किशनगंज, नवादा, नालन्दा, शेखपुरा और अभी हाल में औरंगाबाद में सामने आया। जैसे जैसे आम आदमी का गुस्सा सड़कों पर फूटने लगा वैसे वैसे दमन चक्र चलने लगा और सरकार ने आंदोलन के लिए गठित घारा 353 को जमानती धारा से बदल कर गैरजमानती कर दिया पर यह सिलसिला नहीं रूका। इस सब के बीच जनता के साथ उसकी आवाज उठाने के लिए कौन खड़ा था? आम आदमी की आवाज को मीडिया ने मुखर किया। सरकार को शर्मशार करते हुए उसे घेरा, कई बार नीतिश जी चिढ़ गए पर मीडिया अपना काम करती रही।
हां विज्ञापन के गौरवाजिब दबाब में प्रिंट मीडिया की धार कुंद हो गई कई बार सरकार की पहल पर कुछ पत्रकारों के साथ अन्याय किया गया पर यहां भी विपक्ष कहीं नजर नहीं आया, मतलब साफ कि बिहार में जिसे हम बिकाउ मीडिया कहते है उसी ने विपक्ष की भुमिका निभाई।
और इस सब के बीच जब पानी सर से उपर चला गया तो विपक्ष ने गीली मिटटी खोद कर फरहाद बनने के तर्ज पर प्रेस विज्ञप्ति जारी करना शुरू किया या कहीं कहीं औपचारिक धरना देना प्रारंभ किया और उनकी यह खबरें या तो मीडिया में जगह नहीं पा सकी या उनके अनुसार बाजिव जगह नहीं मिली। तब पर भी कुछ कुछ मीडिया हाउसों ने प्रमुखता से खबरें लगाई पर इस सब में समुची मीडिया और ईमानदार संपादकांे और पत्रकारों को कठघरे मंे खड़ा कर दिया गया। उसे शर्मशार किया जाने लगा और देखते ही देखते बिहार में सुशासन का श्रेय मीडिया के मथ्थे आ गया गया। बिहार मंे कुशासन और सुशासन की चर्चा फिर कभी, अभी तो बस मीडिया ही।
बिहार नवनिर्माण मंच के नेता अरूण सिंह अभी हाल में ही मेरे यहां आए हुए थे और संवाददाता सम्मेलन के कवरेज के लिए जब गया तो उन्होंने और उनके साथियों ने सीधा कहा, आप लोग तो बिक गए है, न्यूज कहां छपती है? मेरा तो तरबा का घूर कपार पर चढ़ गया। छोटे से कस्बाई ईलाके में रहकर भी मैं हमेशा उनके द्वारा एयरकंडीशन हॉल, स्वीट डिश के साथ प्रायोजित संवाददाता सम्मेलन की खबरे देख-पढ़ रहा था और यदा कदा औपचारिक कुछ घंटों की घरना की खबर भी मिल जाती थी, यह सब मैंने कैसे जाना? मेरे पूछने पर तर्क वितर्क और उनकी थोथी दलील के बाद मैंने सीधा उनकों इस बात का एहसास कराया कि आधा भीतर आधा बाहर की राजनीति को मीडिया समझती है और आप इसे अपनी मर्जी से इस्तेमान नहीं कर सकते? कौन है ये नवनिर्माण मंच वाले, जदयू के राज्यसभा संासद उपेन्द्र कुशवाह, विधान सभा में गलबहियां डालने वाले अरूण सिंह इत्यादि। सिंद्धांतहीन राजनीति के इन पुरोधाओं को मीडिया ने ही इतना बड़ा किया और जब जब मीडिया ने इन लोगों को अतिरिक्त कवरेज दिया तब तब ये लोग नीतीश कुमार के हाथों मंहगें दामों मे बिके और जब उनके ब्लैकमेंलिंग फंडा को नीतीश कुमार ने नकार दिया तो लगे है चिल्लाने!
यह सच है कि बिहार की मेन स्टींम मीडिया, खास कर पिं्रट मीडिया सरकार की खबरो को प्रमुखता से जगह देती है और इसके पीछे विज्ञापन का खेल है पर यह भी सच है कि बिहार में बिपक्ष की भुमिका में बस और बस मीडिया ही है जिसके भय से हिटलरी प्रशासन सहम जाती है। छोटी खबरों पर पत्रकारों के फैज लड़ती भीड़ती है और खबरों पर पहल होती है। एक ब्रेकिंग न्यूज का असर सेंकेन्ड मंे होता है और सम्बन्धित थानों में पटना पुलिस मुख्यालय से फोन की घंटी बज जाती है। एक्शन लिया जाता है कार्यवाई भी होती है।
यह बात भी सच है कि अब न तो रामनाथ गोयनका जैसी शहीदी शख्शियत हैं और न हीं प्रभास जोशी जैसे पत्रकार, तब भी आज बहुत से लोग अपनी ही ईमानदारी से रोज रोज संधर्ष करते हुए अपने को साबीत करने में लगे है और उन जैसे लोगों के लिए जब यह शब्द सामने आता है कि बिहार में मीडिया बिकाउ है तो उनका कलेजा चाक हो जाता है इसलिए बिहार का विपक्ष आंदोलन के लिए सड़क पर उतरे और महज मीडिया के भरोसे नहीं बल्कि जनता के भरोसे और फिर देखे कि कैसे मीडिया उसे कवर नहीं करती, आग लगेगी तो धुंआ तो उठेगा ही, बिना आग लगाए ही धुंआ उठाने के लिए मीडिया पर क्यों जोर जबरदस्ती की जा रही है और सिर्फ और सिर्फ चौथेखम्भे के माथे कलंक लगाया जा रहा है।

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