21 जनवरी 2012

सोशल साइट्स पर प्रतिबंध के बहाने- कुछ गंदगी भी आने दो.. कब तक धर्म की आड़ में सच से मुंह छुपाते रहोगे?


(अरूण साथी)
आज सुबह ही गांव में रहने वाला एक किशोर रामशंकर साई सिंह ने अपने दोस्तों को निधि से बचने की सलाह दी है, निधि एक फेक एकाउंट है जिसपर पोर्न तस्वीरें रहती है, यह रामाशंकर के विचारों की सकारात्मक अभिव्यक्ति थी। निधि यदा कदा मेरे वाल पर भी चस्पा हो जाती है और पहले मैं उसे खोल कर देखता हूं फिर कहीं कोई मेरे वाल पर इस तरह की नंगी तस्वीर देख न ले उसे डीलीट कर देता हुं। 
सन्नी लियोन जब बिग बॉस के घर आई तो मैं भी उत्सुक हुआ और गूगल देवता की मदद से उसे ढूंढ निकाला। बाद में पता चला कि सन्नी को ढूंढना सब रिकार्ड तोड़ दिया, मैं ही नहीं कई दिवाने है, और फिर यह बहस चल रही है नैतिक की....

जब से सोशल साइटस पर प्रतिबंध की बात सुन रहा हूं तब से कुछ न कुछ पढ़ने को मिल रहा है। अभी अखबारों में प्रवचन तो कभी चैनलों पर। विचित्र दुनिया है, प्रतिबंध लगा कर सुधारने की प्रवृति अभी तक बची हुई है? भला कैद खाने में भी कोई सुधार होता है? जब से होश संभाला है तब से ही यह सुनता आ रहा हूं, यह न करा,े वह न करो, यह भला है यह बुरा? किसी ने तय ही नहीं करने दिया मुझे, भला क्या और बुरा क्या? उपदेशकों का बोल-वचन भी बड़ा ही प्यारा होता है, अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब यह नहीं की हम बहक जाए और धार्मिक भावनाओं का लिहाज न करें अथवा धर्म को बिगाड़ने का प्रयास करें। कुछ लोगों को राजनेताओं के उपर बने कार्टून और फेक तस्वीरों से भी आपत्ति है और फिर मामला न्यायालय में गया और आदेश आ गए प्रतिबंध लगा दो।

सबसे पहला तर्क धर्म को लेकर है। धर्म के विरूद्ध है सोशल साइट्स। तब मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है जब सोशल साइटस पर किशोर, युवा और बुजुर्ग तीन पीढ़ी एक साथ विचारों को अभिव्यक्त करतें हैं। कोई धर्म के खिलाफ लिखता है तो कोई फोटो चिपका देता है। कोई उसके उपर कॉमेंट करता है। मतलब कि यह एक ऐसा मंच जहां खुले मन से हम अपने विचार रखते है। कोई रोकने टोकने वाला नहीं। तब क्या धर्म को इन विचारों से खतरा है और वह नष्ट हो जाएगा? कैसा है यह धर्म जो इतनी छोटी सी बात से भी डर जाता है। जो कुछ पोस्ट और कार्टून से खराब हो जाएगा। हजारों सालों से हमनें जिस धर्म की आड़ में आजादी को कैद कर रखा है उस धर्म ने हमें यही सिखाया है। बड़ी लंबी चर्चा होगी यदि इस में फंसे की धर्म क्या है? बस इसी में रहते है कि क्या धर्म का आधार इतना कमजोर है कि वह नेट पर कुछ पोस्टों से खराब हो जाएगा? धर्म शाश्वत और ईश्वरीय है, तब फिर यह इतना कमजोर कैसे हो सकता है? और जिस धर्म का आधार ईश्वर है उस धर्म की चिंता हम क्यों कर रहें है? निरा बुद्धू हैं हम या फिर खुद को ईश्वर से उपर मान रहें है? छोड़ दो भाई धर्म यदि वास्तविक धर्म है तो उसे कुछ नहीं होने वाला। कहा भी जाता है कि सोने की परीक्षा आग में तपा कर ही होती है, तो तपने दो धर्म को इस आग में।

एक बात तो हमे सोंचनी ही होगी कि हजारों सालों से हम कह रहें हैं कि जमाना खराब है, हम पापी है, हमे सुधरना होगा। इसके लिए तरह तरह के प्रतिबंध लगाए, नियम बनाए, यज्ञ-प्रवचन से लेकर बुर्का तक पहना दिया और आप ही कहतें है कि वर्तमान समय सबसे बुरा है। तब धर्म और धार्मिक ग्रंथों के औचित्य के उपर ही सवाल नहीं उठाता? यदि वे सही होते तो जमाना खराब कैसे होता? और अगर जमाना खराब है तोे फिर वे सही कैसे? 

सलमान रस्दी का मामला बड़ा ही हस्यास्पद है और कई बौद्धिक मठाधीश महोदय उनके आने का विरोध कर रहें है इनमें से कुछ वही है जिन्होनें ही एम एफ हुसैन के विरोध किए जाने का विरोध किया था? कुछ मां सरस्वती की पेंटिंग मंे अश्लीलता देख लेते है तो कुछ मीड नाइट चिल्डेन के सच का सामना नहीं करना चाहते।

और अन्त में मैं उन माननीय नेताओं से कहना चाहूंगा जिन्होंने नेताओं प्रति यहां पर गुस्सा देखा है उन्हें इससे सबक लेना चाहिए न कि वहीं राजनीति की वही उलटबंसी यहां भी बजाऐं और देश का बंटाधार कर दें।
यह दोहरी जिंदगी कब तक। तय करने दिजिए सारे रास्ते इस नई पीढ़ी को, जिसे हजारों सालों से आपका धर्मिक प्रवचन, तत्वज्ञान और तालीबानी फरमान अपने हिसाब से नहीं सुधार सका। हमने कोई रास्ता बनाया ही नहीं और हजारों सालों से चिल्ला रहें है युवा रास्ते से भटक गए है!

19 जनवरी 2012

जमाना तो बोन लेस का है फिर कबाब में हड्डी क्यों बनते हो जी....(व्यंग)


अरूण साथी..

बदलते जमाने के साथ साथ जमाने का चलन भी बदल गया है। इस चलन में एक नया चलन स्याही फेंकने का जुड़ गया है वह भी उनपर जो कबाब में हड्डी बनतें है। पहले का दौर और था जब राजा महाराजा कबाब मंे हड्डी पसंद करते थे और बिरबल दरबार की शोभा बढ़ाते थे पर आज जमाना बदला है और कुछ लोग हैं कि बदलना ही नहीं चाहते। उनको यह समझ ही नहीं कि आजकल कबाब में हड्डी लोगों को पसंद नहीं और बोन लेस कबाब ऑन डिमांड है। बाबा ढावा से लेकर दिल्ली के दरबार तक बोन लेस कबाब की ही डिमांड है। अब लोग भी किसिम किसिम के है किन्हीं को शाही बोन लेस कबाब पसंद है तो किन्हीं को मुगलई बोन लेस कबाब। दोनांे कबाब के डिमांड का पता करना है तो भाई लोग युपी चुनाव पर नजर डाल लें, हां चश्मा उतार कर। आजकल शाही बोन लेस कबाब के शौकीन बड़ी संख्या में मिलने लगे है। इसकी फेहरिस्त में अपने लल्लू भैया, दीदी जी, बहन जी और तो और कामरेड भी शामील है। लोग समय समय पर जायका बदलने के लिए कभी शाही बोन लेस कबाब तो कभी मुगलई बोन लेस कबाब की डिमांड में गला फाड़ कर चिल्लाते नजर आतें है।

अब रही बात कबाब में हड्डी की तो यह अब नहीं चलेगा। देखा नहीं बाबा और बुढ़उ का का हाल हुआ। ला-हौल-बिला-कुवत। रामलीला में महाभारत करबा दी बोन लेस के शौकीनों ने। बुढ़उ को तो जंतर मंतर से लेकर आजाद मैदान तक ऐसा पोलिटिकल भूल-भुलैया में फंसाया कि बेचारे की जान पर बन आई। लोग बाग तो यही सोंचतें है, गोया जान है तो जहान है पर बुढ़उ को समझ आये तब न।
भैया, बोन लेस की बात ही निराली है। उनकी तो ठाठ ही ठाठ है। अब आपसे कुछ भी कहां छुपा है, कई लोग रीढ़ की हड्डी निकाल कर बोन लेस बने और माननीय की कुर्सी पर बिराजमान है। जय हो।

(कार्टून- गूगल देवता के सौजन्य से)


17 जनवरी 2012

प्यार पर पहरा---


प्यार पर पहरा---
जमाना भले बदल गया है पर सोंच नहीं बदली है। बरबीघा थाने में अपने दो माह के बच्चे के साथ इस प्रेमी युगल को गिरफ्तार कर रखा गया है और इनका जुर्म यही है कि इन्होने प्रेम विवाह किया है और वह भी अर्न्तजातिय। लड़की यादव जाति की है और लड़का बढ़ई। दोनों एक ही गोडडी गांव के रहने वाले है और बचपन से एक दूसरे से प्रेम करते थे। लड़का 2010 में एसकेआर कॉलेज में पढ़ता था और इंटर का परीक्षा देने से पुर्व ही घर से भाग कर प्रेम विवाह कर लिया। लड़की के परिजनों ने अपहरण का मामला दर्ज करा दिया और पुलिस भले ही अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रहे पर प्रेमी जोड़ों को पकड़ने में तत्परता दिखाती है और दोनों को नवादा जिले के कटौना गांव से गिरफ्तार कर लिया गया। दोनों को शेखपुरा कोर्ट में हाजिर किया जाना  है और फिर जेल..





02 जनवरी 2012

यही तो है साथी जिंदगी का बाजार..


पांच वर्ष का भतीजा गोलू जो अपने मामा के पास गया हुआ था की तबीयत खराब होने की वजह से फरीदाबाद जाना हुआ। एक सप्ताह लगभग रहा पर वहां मेरा जी नहीं लगा। या यूं कहें की शहर की रंगीनियों ने मेरा मन नहीं लुभाया या यूं कहें की लगातार क्लिनिक में रहते हुए ही मन ऐसा हो गया, पता नहीं क्यूं पर मन नहीं रमा और फिर 1 जनवरी को ही वहां से भाग आया। एक उदासी और एक खालीपन सा कुछ रहा लगातार। हां जमकर सैंडबीच, बर्गर और कॉफी का मजा लिया।
पर जो हो कुछ अच्छा भी हुआ। जैसे की अकस्मात इमरजेंसी होने की वजह से पहली बार हवाई जहाज से यात्रा करनी पड़ी और एक अलग दुनिया देखने को मिली। असमानता की एक उंची खाई। और फिर फेसबुक दोस्त मनीष कुमार (फरीदाबाद) ने इस आभासी दुनिया की दोस्ती का भास कराया और अस्पताल से लेकर हर जगह मुझे एक अपनापन दिया, लगा ही नहीं की हम दोनों नीजी दोस्त नहीं है। और फिर हरियाणा की महिलाओं की एक सबसे खास बात तो मुझे बहुत अच्छी लगी वह उनका अपने सेहत का ख्याल रखना। सभी महिलाऐं जुती और मौजे पहने दिखी, ग्रामीण भी, मन प्रसन्न हो गया। अपने यहां हो जैसे जुती घर में भी तो ठंढ में महिलाऐं नहीं पहनती और बीबी से रोज किच किच हो जाती है स्वेटर क्यों नहीं पहना, मफलर तो बांधो, पर असर नहीं, खैर 1 जनवरी को दिल्ली धुमने के प्रस्ताव को ठुकरा कर नव वर्ष रेलगाड़ी और औटो मे ंकाटी और अब अपने घर पहूंच गया। भतीजे की भी अस्पताल से छुटटी हो गई।

वहां के बाजार मे धुमते हुए चंद शब्द चुरा कविता की शक्ल दे दी, सोंचा आपके साथ सांझा कर लूं..


बेवजह
भीड़ है
आपाधापी है
कुछ खरीददार
कुछ दुकानदार
कुछ डेढ़ रूपया हरेकमाल की
सोंच रखतें हैं
कुछ मोल भाव कर
सोंचते है
मिल जाए सब कुछ सस्ते में,

कुछ हर कीमत पर बचा लेतें हैं!
कुछ बेकीमत बेच देते घरवार..

यही तो है साथी जिंदगी का बाजार..